Thursday, March 13, 2008

नदी

क्या नियति होती है , इस नदी की ..... हंसती, गाती, खिलखिलाती, नाचती , कूदती, ख़ुद में मग्न, गौरवमयी व्यक्तित्व की स्वामिनी, कितने ही राहगीरों को तृप्त, आनंदित व प्रेरित करती, निरंतर चलती रहती है..... उस मंजिल को पाने की चाह लिए, जिससे मिलने का ख़याल ही उसके उर को सम्पूर्णता का एहसास कराता है, और वो भविष्य की इस कल्पना में खोकर और भी आह्लादित हो उठती है, व और भी अधिक वेग से आगे बढ़ने लगती है ।

सागर से मिलन की चाह , वो मिलन के सुखद स्वप्न इतने आनंददायक होते हैं क वो राह में मिलने वाली सारी पीड़ा , सारे कष्टों को भूलती नही , उनका एहसास ही नही कर पाती....

सारी खाइयों ,खंदकों उतार चढ़ाव को पार करती, वो सम्पूर्णता की तलाश में अत्यन्त वेग से आगे बढ़ती जाती । जाने कितनों की तो नैय्या वो अनजाने में ही पार लगा देती है,और ये सब वो जाने भी तो कैसे , उसका ह्रदय तो कहीं और है ..... उसके जीवन का एक एक पल , उसकी हर साँस ... उसका सर्वस्व, हाँ सर्वस्व तो बस सागर ही है , वही सागर जिससे मिलने के लिए वो अब तक जीती आई है , वह सागर जिसके पास खजाना है , प्रेम व सम्पूर्णता का ... जिससे मिलने के बाद वो ..... क्या कोई बयान कर सकता है उस एहसास को जो उस मिलन के बाद होगा ? नही... कभी नही

फ़िर वो दिन भी आता है जब उससे अपनी मंजिल दिखने लगती है .........उफ़ उस मंजिल की एक झलक पाते ही अजीब सी घबराहट , उसके तेज़ वेग वाले क़दमों को बाँधने लगती है ..... दिल कहता दौड़ चल पिया के पास, पर हिम्मत जवाब दे देती है .... कहीं रूठ गए तो ? ... इतने इंतज़ार के बाद तो दर्शन दिए हैं .... कहीं कुछ गलती हो गई तो ... नही, नही ,वो ऐसा कभी नही कर सकती , कभी नही । वो बहुत धीमी - धीमी गति से, अपनी मंजिल को पाने की चाह लिए, लज्जाती हुई,घबराहट को बांधती हुई .... हजारों बातें सोचती हुई, अपने हर विचार व मूल्य को अपने आने वाले जीवन की अनुरूप ढालती हुई .... अंततः जा पहुँचती है अपनी मंजिल तक... अपने सागर तक, अपने ख्वाब तक ...

.... वो सम्पूर्णता का एहसास इतना सुकून भरा होता है की वो भूल जाती है अपना सर्वस्व और विलीन कर लेती है ख़ुद को उस सागर में , उसकी संगिनी बनने के लिए ढाल लेती है अपने हर अंश को , अपने हर कतरे को , न्योछावर कर देती है अपने अस्तित्व को उस मंजिल, उस सागर पर जिसने उससे उसका सब कुछ , उसकी सम्पूर्णता दी.....